जैन दर्शन : परमात्मपद-प्राप्ति की सामग्री - भाग # 3

in #life7 years ago

अब हम हमारे पिछले दो अध्धायों से आगे बढ़ते है ।

इस आत्मा ने संसार में परिभ्रमण करते हुए अनन्त-अनन्त पुद्गलपरावर्त्तन पुरे किये है । उनकी कोई गणना ही संभव नहीं है । यह पुद्गलपरावर्त्तन पुरे करते-करते अचानक ही, पुण्य के योग से, कभी एक विशिष्ट अवस्था प्राप्त हो जाती है, जिसमें यह जीव पूर्वोक्त तीन गुणों का लाभ करता है अर्थात् उसके मन में चंचलना नहीं आती, भगवद् भजन करने में अरुचि नहीं होती और न थकावट आती है । यही जीव की चर्मावर्त्त अवस्था कहलाती है । इस अवस्था में जीव मोक्षमार्ग के सन्मुख होता है ।
image.png

कर्म आठ हैं, यह तो आपको विदित ही है । इनमें से मोहनीय कर्म की सत्तर कोड़ाकोड़ी, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और वेदनीय कर्म की तीस-तीस कोड़ाकोड़ी, नाम और गौत्र कर्म की बीस कोड़ाकोड़ी और आयु कर्म की तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । यह सब उत्कृष्ट स्थिति घट कर जब आयु के सिवाय सात कर्मों की एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम से भी कम रह जाती है, तब धर्म में रूचि उत्पन्न होती है । यह अवस्था किस प्रकार आती है, यह समझाने के लिए शास्त्र में एक सुंदर उदाहरण दिया गया है ।

मुसलाधार वर्षा के प्रवाह में बहकर पहाड़ का एक पाषाण नदी में आ जाता है । तदनन्तर नदी के प्रबल वेग में पड़कर वह धीरे-धीरे लुढकता-लुढ़कता और पिसता-पिसता तथा अन्य पाषाणों से टकराता हुआ शालिग्राम की भांति गोलमटोल हो जाता है । पत्थर गोलमटोल बनने के इरादे से नहीं बहता और न नदी के प्रवाह की ही यह इच्छा होती है कि इस पाषाण के तमाम नुकीले किनारे घिस दिये जाएं और इसे गोलमोल शंभु बना दिया जाये । किन्तु यह सब अनायास ही होता रहता है । इसी प्रकार प्रारंभ में जीव की इच्छा नहीं होती कि मैं अपने कर्मों की स्थिति का ह्यास करू और धर्म के सन्मुख होऊं, फिर भी अनंतानंत काल बीतने पर अकस्मात ही कदाचित् ऐसा अवसर आ जाता है कि कर्मों की स्थिति एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम से भी कुछ कम हो जाती है । इस प्रकार कर्मो की प्रबलता और सघनता कम होने पर आत्मा की स्वाभाविक शक्तियां किंचित् सजीव-सी हो उठती हैं । आत्मिक वीर्य में एक प्रकार का उल्लास उत्पन्न होता है और धर्म प्रिय लगने लगता है ।

कर्मस्थिति जब तक एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम से अधिक होती है, तब तक धर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न नहीं होती । आप किसी से कहते है – ‘चलो, धर्मोपदेश हो रहा है, सुन आयें ।‘ वह उत्तर देता है – ‘अजी, क्या रक्खा है व्याख्यान सुनने में ! आओ, गप्पें मारें, ताश खेलें और मनोरंजन करें ।'

ऐसा उत्तर देने वाले के प्रति आपके मन में रोष की भावना उत्पन्न हो सकती है, मगर आपको रोष करना नहीं चाहिए । यही समझना चाहिए कि अभी इसके तीव्र कर्मों का उदय शेष है । इसकी कर्म स्थिति का परिपाक नहीं हुआ है । धर्मोन्मुख होने का अवसर इसे प्राप्त नहीं है ।

कर्मों की कुछ कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थिति शेष रहने पर यथाप्रव्रत्ति-करण उत्पन्न होता है । यहां ‘करण’ का अर्थ आत्मा का परिणाम है । इस यथाप्रव्रत्ति-करण के होने पर धर्म की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु धर्मश्रवण की रूचि अवश्य उत्पन्न तो जाती है । यथाप्रव्रत्ति-करण के पश्चात् कर्म स्थिति अधिक ह्यास होने पर तदनुरूप निर्मलता में भी व्रद्धि होती है और धर्म प्रिय लगने लगता है । उस समय आत्मा में कुछ ऐसे भाव जागृत होते हैं जो एकदम नवीन होते हैं और जो पहले कभी जागृत नहीं हुए थे । उस समय के आत्मिक परिणाम को शास्त्रीय परिभाषा में ‘अपूर्वकरण’ कहते हैं । इसके पश्चात् कर्मस्थिति में थोड़ी-सी और न्यूनता आने पर एवं आत्मशुद्धि में व्रद्धि होने पर ‘अनिव्रत्ति-करण’ उत्पन्न होता है । अनिव्रत्तिकरण होने पर राग-द्वेष की सघन एवं चिकनी गांठ रूप ग्रंथि का भेदना होता है और वह ग्रंथि-भेद ही सम्यक्त्व की प्राप्ति है ।

सम्यक्त्व की प्राप्ति का अर्थ है निर्मल द्रष्टि का लाभ हो जाना, रूचि का यथार्थ एवं विशुद्ध हो जाना, आत्मा का अपने स्वरूप को पहचान लेना और उसी में रमण करने की अभिलाषा उत्पन्न हो जाना, कषायजनित भीषणतम संताप से छुटकारा मिल जाना, अपूर्व शांति, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता का bhaaव जाग्रत हो जाना ।

इस स्थिति में वीतराग की वाणी के प्रति प्रबल प्रीति उत्पन्न होती है । आत्मा बाह्य पदार्थो में जलकमलवत अलिप्त हो जाता है । मिथ्यात्व हेय बन जाता है । यह चरमाव्रत्त दशा का परिपाक है । यह अवस्था पुण्यशाली और लघुकर्मा जीवों को प्राप्त होती है । जिन्हें प्राप्त होती है, वे अत्यंत भाग्यशाली हैं । उनका जन्म और जीवन धन्य बन जाता है ।

पहले अध्धाय का जुडाव है :- https://busy.org/@mehta/27w7ww
दूसरें अध्धाय का जुडाव है :- https://busy.org/@mehta/2

परमात्मपद-प्राप्ति की सामग्री की Steeming

Footer mehta.gif

Sort:  

अपनी स्वंय की आत्मा के उत्थान से लेकर, व्यक्ति विशेष या सार्वजनिक लोकहितार्थ में निष्ठापूर्वक निष्काम भाव आसक्ति को त्याग कर समत्व भाव से कर्म करना चाहिए।

Bahut hi sunder likha hai ye lekh. Ye series aapne Jo shuru Kiya hai.
Ummid hai ache achhe Gyan ki baate hame janne ko milegi.
Thanks
Posted using Partiko Android

@mehta jee acha lagta hai jab aap hindi me post karte hai vo bhi steam jaise platform par jaha maximum audience english language use karti hai. Tarif karta hu aapke is unique initiative ka bhai. Mujhe hindi me type karna nai aata steemit pe isliye english me kar rha hu.

Posted using Partiko Android

मेहता जी आप इस मंच का बहुत अच्छा उपयोग कर रहे हैं | बहुत बधाई इतनी अच्छी जानकारी के लिए |

आपका दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.

दुनिया जब भौतिक संसाधनों के पीछे पागलो की तरह दौड़ रही हैं , इस युग में आप इतनी महत्वपूर्ण जानकारी { ज्ञान } उपलब्ध करवा रहे हैं | वो भी इस मंच से , जहां लोग सिर्फ मतलब की बात करते हैं | मेरी नजर में ये बहुत बड़ी बात हैं | हम आपके आभारी हैं |

अच्छी जानकारी शेयर करने के लिए साधुवाद.

You got a 53.58% upvote from @upmewhale courtesy of @mehta!

Earn 100% earning payout by delegating SP to @upmewhale. Visit http://www.upmewhale.com for details!

‌‌‌आपका अध्याय अच्छा है।

@mehta बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

nice post and beautiful post

मेहता जी बहुत बधाई इतनी अच्छी जानकारी के लिए | ज्ञान बाँटने से ज्ञान बढ़ता है ! धन्यवाद् !

@mehta how solve bad content problem?? I am in black list

Its was good to know about eight कर्म Karma ! thanks for Sharing

Cheers
Dev

bahut badiya mahta ji bahut saandaar jaankari de rahe h ap

This user is on the @buildawhale blacklist for one or more of the following reasons:

  • Spam
  • Plagiarism
  • Scam or Fraud

If you follow me i am also follow you

Are paji kadi too up 👆 vote kiya karo